Saturday, June 25, 2011

pinjre kaa totaa

पिंजरे  का तोता  
न जाने कितने वर्ष बीत गए, रहता हूँ इस पिंजरे में ,क्या पूरब क्या पश्चिम ,क्या उत्तर क्या दक्षिण,
क्या दिन क्या रात, क्या सुबह और  क्या शाम, सूरज, चाँद, सितारे न जाने कहाँ चले गए .
कैसे पर्बत ,कैसी नदियाँ , कैसे बाग़ बगीचे, कैसा होता है आकाश, कैसी होती है आज़ादी ,
किस  से पूंछु किस को लिख भेजूं पाती, किस काम के ये पंख मुझे दे दिए ? .
सुनता हूँ चिडिओं की चीं-चीं, कौए की कांव-कांव ,कोयल की कुहू -कुहू, कबूतर की गुटर गूं ,
कौन होतें हैं मित्र मेरे ,अपने न जाने कहाँ खो  गए.
यह ठीक है खाना पीना नहीं पड़ता ढूंढना , आराम ही आराम है बस जिन्दगी में,
सुख चैन का क्या करूं, जो जीवन नहीं है मेरा अपना, कोई खोल दे इस पिंजरे को ,
पहुँच जाऊं जहां हो कोई मेरा अपना .
पहचानूंगा कैसे कौन अपना कौन पराया , हाँ सोच-सोच यही समझ में आया ,
जिसकी सूरत-मूरत होगी मेरे जैसी, मेरे जैसी चाल- ढाल ,मुझे देखते ही बढाएगा अपना प्यार. 
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